‘संघर्ष’ जीवन की एक ऐसी सच्चाई है दोस्तों जिसे कोई झुठला नहीं सकता। जीवन में ऐसे कई मौके आते हैं जब आपके पास दो रास्ते होते हैं। एक रास्ता है कि आप अपनी मुसीबतों से डर कर बैठ जाएं। दूसरा रास्ता वो है जो आपकी पूरी दुनिया में एक अलग पहचान बनाएगा।
अगर आपने अपनी मुसीबतों से लड़ना और संघर्ष करना सीख लिया तो आपको कोई हरा नहीं सकता। वो कहते हैं न। भगवान भी उनकी ही मदद करते हैं जो खुद की मदद करता है। तो आज हम आपको ऐसे ही कुछ सुपर स्टार हीरोज़ के बारे में बताने जा रहे हैं जिन्होंने अपनी मुसीबतों से हार नहीं मानी बल्कि उनके आगे खुद मुसीबतों ने घुटने टेक दिए।
हम अपने इस आर्टिकल में आपको बताने जा रहे हैं सात बाॅलीवुड अभिनेताओं के जीवन से जुड़े संर्घष के दौर के बारे में। हमें उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है कि आप इससे प्रेरणा लेंगे और अपनी मुसीबतों से जीत जाएंगे।
अमिताभ बच्चन
दोस्तों माया नगरी मुंबई में बसे बाॅलीवुड की चकाचैंध में आखिर कौन नहीं खो जाना चाहेगा। कौन नहीं चाहेगा कि उसके पास बंगला हो, गाड़ी हो, बैंक बैलेंस हो। आपको लगता होगा कि बाॅलीवुड में एंट्री लेकर नाम और शोहरत और पैसा कमाना तो यूं चुटकियों का खेल है। पर जरा रुकिए जनाब। गलत फहमी में जी रहे हैं आप।
इस इंडस्ट्री में नाम कमाना अंधेरे में सुई ढूंढने जितना मुश्किल काम है। आज जो नाम और रुतबा अमिताभ बच्चन को बाॅलीवुड से मिला है उसके पीछे छिपा है उनका संघर्ष। अलाहाबाद (हाल प्रयागराज) में जन्मे इस गंगा किनारे वाले छोरे ने अपने जीवन में इतना मुश्किल दौर देखा है कि अगर इनकी जगह कोई और होता तो शायद कब का हार मान कर बैठ गया होता। अमिताभ बच्चन के पिता हरिबंश राय बच्चन एक मशहूर कवि थे।
उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता थी मधुशाला। हरिबंश राय बच्चन के घर 11 अक्टूबर 1942 को एक ऐसे पुत्र ने जन्म लिया जिसने अपने माता पिता को धन्य कर दिया। अगर बात की जाए अमिताभ बच्चन के फिल्मी सफर की तो वो कांटों की सेज से कम तो बिलकुल भी नहीं था। आज जिस लंबाई के कारण पूरी दुनिया उन्हें बिग बी के नाम से जानती है। एक वक्त वो भी था जब उन्हें उनकी लम्बाई के कारण काफी अपमानित होना पड़ा था।
पहले तो उन्हें कोई फिल्मों में उनकी लम्बाई के कारण काम देना नहीं चाह रहा था। पर जैसे तैसे करके उन्हें पहली फिल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’ में काम करने का मौका मिला तो उनकी लम्बाई को देखते हुए बहुत सी अदाकाराओं ने उनके साथ काम करने से मना कर दिया।
एक बार तो किसी फिल्म के डायरेक्टर ने उन्हें यह तक कह दिया कि पहले अपनी टांगें कटवा कर आओ तब हीरो बनने के सपने देखना। आपको बता दें कि शुरुआती दौर में अमिताभ बच्चन के हिस्से में कई फ्लाॅप फिल्में आई जिनमें से कुछ के नाम हैं अग्निवर्षा, तलिसमान।
इसके अलावा ‘बड़ा कबूतर’ फिल्म में भी अमिताभ बच्चन ने काम किया है। इनके साथ इस फिल्म में दादा मुनी यानी अशोक कुमार और हेलेन ने भी मुख्य भूमिकाएं निभाईं थीं। इसके अलावा ‘एक नजर’, और फिर बंधे हाथ में अमिताभ बच्चन नजर आए। मगर इन फिल्मों के लिए भी जैसे सिनेमा घरों में दर्शकों के हाथ बंधे ही नजर आए। टिकट खिड़की के अंदर एक भी हाथ नहीं गया जिसने उस फिल्म की टिकेट खरीदी हो।
बताते चलें कि अमिताभ बच्चन ने भोजपुरी फिल्म में भी काम किया है। क्या इससे पहले आप ये बात जानते थे? हम दावे के साथ कह सकते हैं जनबा कि आपने इसके बारे में कभी नहीं सुना होगा। मगर यह बिलकुल सच है। उस भोजपुरी फिल्म का नाम है ‘गंगा देवी’।
इस फिल्म को भी दर्शकों ने ठेंगा दिखा दिया। अब जरा सोचिए कि इतनी सारी फिल्में और वो भी लगातार फ्लाॅप हो जाएं किसी अभिनेता की तो उसके दिल पर क्या बीतेगी। वह तो पूरी तरह से टूट जाएगा। अमिताभ बच्चन भी टूट जाते मगर उनकी रगों में हरिवंश राय बच्चन का खून दौड़ रहा था।
हरिवंश राय ने एक कविता लिखी थी ‘है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।’ अमिताभ बच्चन ने भी हार नहीं मानी। उम्मीद के दीपक को रौशन किया। उन्होंने अपनी गलतियों से सीख ली और अपने अभिनय में और निखार लाए। फिर उनके फिल्मी करियर में वरदान साबित हुई फिल्म ‘आनंद’।
इस फिल्म में मुख्य भूमिका में थे हम सबके प्यारे राजेश खन्ना जिनका एक डायलाॅग तो आपने सुना ही होगा – ‘इन आंसुओं को पोछ दो पुष्पा, आई हेट टीयर्स रे।’ आनंद फिल्म में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने राजेश खन्ना के सह अभिनेता के रूप में काम किया। उनकी बेहतरीन अदाकारी के दम पर इस फिल्म ने उनकी झोली में पहला फिल्म फेयर अवाॅर्ड डाल दिया। इसके बाद सन् 1973 में एक ऐसी फिल्म आई जिसने संघर्षों की ‘जंजीर’ में जकड़े अमिताभ बच्चन को आज़ाद कर दिया।
जी हां, हम बात कर रहे हैं फिल्म जंजीर की। इस फिल्म का निदेर्शन किया मशहूर फिल्म निदेर्शक प्रकाश मेहरा ने। इस फिल्म से तो जैसे उनकी किस्मत ही पलट गई थी। अमिताभ बच्चन ने इसके बाद एक के बाद एक लगातार कई हिट फिल्में दीं। बस फिर क्या था। जिस अमिताभ बच्चन का सितारे गर्दिश में थे आज उसी अमिताभ बच्चन के सितारे बुलंदियों पर पहुंच गए।
वे लोगों की पहली पसंद बन गए। हीरोइनें उनके साथ काम करने को तरसने लगीं। अमिताभ बच्चन के पास अवाॅड्र्स की झड़ी लग गई। उन्हें आईफा पुरस्कार, एशियन फिल्म अवाॅर्ड, पद्म श्री, पद्म विभूषण, नेशनल फिल्म अवाॅर्ड आदि से सम्मानित किया जा चुका हैै।
इतना ही नहीं, लंदन के वैक्स म्यूजियम में उनका मोम का पुतला भी बना हुआ है। इतनी शोहरत हासिल करने के बाद फिर से एक दौर वो भी आया जब अमिताभ बच्चन को कंगाली का सामना करना पड़ा। उनका बाल-बाल क़र्ज़ में डूब गया था। इस स्थिति में भी अमिताभ बच्चन ने हार नहीं मानी और इससे पार पाने के लिए छोटे मोटे विज्ञापनों में उन्होंने काम भी किया।
कहते हैं विनम्रता ही सफलता की कुंजी है। शायद यही कारण है कि आज उनके करोड़ों चाहने वाले हैं। मगर इस बात का उन्होंने कभी घमंड नहीं किया। हमें अमिताभ बच्चन के जीवन से बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
दिलीप कुमार
बाॅलीवुड इंडस्ट्री का वो नाम जिसने अपनी दमदार अदाकारी के दम पर पूरी दुनिया में अपने नाम का डंका बजाया। वो नाम था मुहम्मद यूसुफ खान। आप भी सोच रहे होंगे कि हम क्या मजाक करने लगे। दरअसल ये उस दिग्गज कलाकार दिलीप कुमार का ही असली नाम है। दिलीप कुमार का जन्म पेशावर में 11 दिसम्बर 1922 को हुआ था। दोस्तों, आपने ‘स्वर्ग’ फिल्म तो जरूर देखी होगी।
उसमें एक डायलाॅग था ‘ये मुंबई शहर है। यहां पर तीन चीज़े बड़ी मुश्किल से मिलती हैं, रोटी, कपड़ा और मकान।’ बस यही बात पूरी तरह से दिलीप कुमार पर लागू होती है। जिस समय दिलीप कुमार ने अपने फिल्मी सफर की शुरूआत की, तो उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। भला कोई सोच सकता है कि आज जिस दिलीप कुमार की एक झलक पाने को लंबी लंबी कतारें लगती हैं वो दिलीप कुमार कभी कंगाली के शिकार थे।
अपने शुरूआती दौर में दिलीप कुमार के सर पर छत भी नहीं थी यानी उनके पास घर नहीं और न ही इतने पैसे थे उनके पास कि वो कई किलोमीटर दूर फिल्म स्टूडियो तक भी जा सकें। लेकिन इन्होंने हार नहीं मानी। आपको ये जानकर हैरानी होगी दोस्तों कि दिलीप साहब ने अपने जीवन यापन के लिए एक आर्मी क्लब के बाहर सैंडविच की स्टाॅल लगाई और उसे बेच कर जो पैसे आते थे उससे वो अपना खर्च निकालते थे।
इतना ही नहीं, दिलीप कुमार ने सड़क किनारे फल बेचने का काम भी किया। अगर पहली फिल्म की बात की जाए तो इनकी पहली फिल्म का नाम था ‘ज्वार भाटा’ जो 1944 में रिलीज़ हुई थी। इन्हें पद्मभूषण और निशाने इम्तियाज़ जैसे सम्मान से भी नवाज़ा गया।
इन्होंने अपने फिल्मी करियर में करीब 65 से भी अधिक फिल्मों में काम किया है। उनकी पहली फिल्म ज्वार भाटा को बाॅक्स ऑफिस पर दर्शकों ने इतना खास पसंद नहीं किया। इस फिल्म को बिलो एवरेज फिल्म की कैटेगरी में रखा गया। इसके बाद 1945 में दिलीप साहब ने फिल्म ‘प्रतिमा’ में काम किया।
ये फिल्म भी दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाई और फ्लाॅप रही। 1948 में बनी फिल्म ‘घर की इज़्ज़त’ भी इनकी फ्लाॅप फिल्मों में शामिल है। अगर बात की जाए दिलीप कुमार की हिट फिल्मों की तो उनमें 1947 की ‘जुगनू’, 1946 की फिल्म ‘मिलन’, 1947 में बनी फिल्म ‘नाॅकादुबी’ और 1948 में बनी फिल्म ‘मेला’, ‘अनोखा प्यार’, ‘शहीद’ और ‘मुगलेआज़म’ शामिल हैं।
चलिए आपको एक रोचक किस्सा बताते हैं दिलीप कुमार के नाम को लेकर। आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि उन्हें अपना नाम मोहम्मद यूसुफ खान से बदल कर दिलीप कुमार रखना पड़ा। हुआ कुछ यूं कि उन्होंने मुम्बई में काम की तलाश में इधर उधर भटकना शुरू किया।
तभी उन्हें एक जानकार डाॅक्टर मथानी मिले। मथानी से दिलीप साहब ने काम के बारे में पूछा। तो उन्होंने कहा कि भई मेरे पास तो तुम्हारे लिए कोई काम नहीं है। हां, लेकिन मैं बाॅम्बे टॉकीज की मालकिन से मुलाकात करने के लिए जा रहा हूं। अगर तुम चाहते हो तो मैं तुम्हें उनके पास ले चलता हूं।
शायद वो तुम्हें कोई काम दे दें। दिलीप कुमार उनके साथ चल पड़े। बाॅम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी ने जब उन्हें देखा तो उन्हें अपनी कम्पनी में नौकरी करने का ऑफर दे दिया। उन्होंने कहा कि आपको फिल्मों में काम करना पडेगा। यहां तक तो ठीक था। लेकिन उन्होंने ये शर्त भी रख दी कि उन्हें अपना नाम बदलना पड़ेगा। दरअसल दिलीप खुद भी चाहते थे कि वो अपना नाम बदल लें।
ऐसा इसलिए था क्योंकि उनके पिता को उनका फिल्मों में काम करना पसंद नहीं था। लिहाजा उन्होंने सोचा कि अगर वो अपना नाम बदल लेंगे तो उनके पिता को पता नहीं चलेगा कि वो फिल्मों में काम कर रहे हैं और वो उनकी पिटाई से बच जाएंगे। दिलीप कुमार को ट्रैजिडी किंग के नाम से भी जाना जाने लगा था।
देवानंद
दोस्तों, चलिए अब बात करते हैं एक ऐसे अदाकार की जिसने अपने फिल्मी करियर में एक से बढ़कर एक सुपर हिट फिल्में दी हैं। आज हम जिनकी ज़िन्दगी की किताब के पन्नों को अपके सामने पलटने की कोशिश करेंगे वो नाम है देव आनंद का। पंजाब के गुरदासपुर जिले में स्थित शकरगढ़ तहसील। ये वो जगह थी जहां पर लेजेंड्री कलाकार देव आनंद ने 26 सितम्बर 1923 को जन्म लिया।
अगर इनके असली नाम की बात की जाए तो आप यकीन नहीं करेंगे। धर्म देव किशोरीमल आनंद इनका पूरा नाम था। जैसा कि घर में सबका एक प्यारा सा नाम होता है जिसे हम कहते हैं निक नेम। तो देव आनंद का घर का नाम था ‘चीरू।’ जब इनके अंदर के कलाकार ने फिल्मों की दुनिया में अपना पहला कदम रखा तब इनका नाम बदल कर देव आनंद हो गया और इन्हें इसी नाम से जाना जाने लगा। देव आनंद के पिता गुरदासपुर के डिस्ट्रिक कोर्ट में बहुत ही जाने पहचाने वकील थे। उनका नाम पिशोरीलाल आनंद था।
मनमोहन आनंद, चेतन आनंद और विजय आनंद इनके तीन भाई थे। देव साहब तीसरे नंबर पर आते थे। देव आनंद ने केवल एक्टिंग में ही अपने पैर नहीं जमाए। बल्कि उन्होंने अपने जीवन में एक सफल निर्माता, निर्देशक, स्क्रीन राइटर के तौर पर भी दुनिया के सामने अपना लोहा मनवाया। दोस्तों आप में से बहुत कम लोग ये जानते होंगे कि देव आनंद की एक छोटी बहन भी थीं। उनका नाम था ‘शीलकांता कपूर’।
एक रोचक बात बताते हैं आपको। वो शीलकांता कपूर के ही बेटे हैं जिन्होंने सुपर हिट फिल्म ‘मिस्टर इंडिया’ का निर्देशन किया और जिनका नाम है शेखर कपूर। देव आनंद जब स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे उसी समय से उनके दिल्चस्प अंदाज, ड्रेसिंग सेंस और स्मार्टनेस की उनके स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां दीवानी थीं।
वो और बात है कि देव साहब थोड़ा शर्मीले किस्म के थे। उन्हें बचपन से ही फिल्मों में काम करने की दिली तमन्ना थी। वो एक सफल एक्टर बनना चाहते थे। मगर इस ख्वाहिश को पूरा करने का रास्ता उन्हें नजर नहीं आ रहा था। स्कूल और काॅलेज के दिनों से ही देव आनंद की एक खास आदत थी।
वे अक्सर तरह-तरह के स्टैम्प पेपर कलेक्ट किया करते थे। देव साहब को अपनी मां से बहुत प्यार था। जब वो बीमार हुईं तो उन्होंने दिन रात अपनी मां की सेवा की। एक बार जब ये अपनी मां की दवाई खरीदने के लिए अमृतसर पहुंचे तो वहां इन्होंने एक जगह बादाम का शर्बत पिया।
उस शर्बत वाले ने देव आनंद को देखा तो अचानक उसने कहा –‘‘तुम्हारे मस्तक पर सूरज चमक रहा है। तुम एक दिन बहुत बड़े इंसान बनोगे।’’ कहते हैं कि 24 घंटे में एक बार मां सरस्वति हमारी जुबान पर विराजमान होती हैं। ऐसा ही कुछ उस शर्बत वाले के साथ हुआ। उसकी बात सच हो गई और आज दुनिया उस एवर ग्रीन एक्टर की दीवानी है।
1943 में उनकी मां चल बसीं। वो निराश हो गए और सीधा मुंबई चले आए जो कि उस वक्त बाॅम्बे के नाम से जाना जाता था। उस वक्त ये अपने एक्टिंग करने के सपने को मन में पाले हुए बाॅम्बे में ही अलग अलग नौकरियां करने लगे। देवानंद को एक दिन उनका काॅलेज का पुराना दोस्ता मिला। वह दोस्त उन्हें एक चाॅल में ले आया जहां से उनके जीवन की किताब में संघर्ष का पन्ना जुड़ चुका था।
देव आनंद और उनके साथियों के पास इतने तक पैसे नहीं थे कि एक वक्त का खाना भी उन्हें नसीब हो पाए। नौबत ये आ गई कि जो स्टाम्प कलेक्शन उन्हें जान से भी प्यारा था उसे उन्हें बेचना पड़ा। इसे बेचकर जो तीस रुपए मिले उससे इनके कई दिन अच्छे बीते।
देव आनंद का संघर्ष के पन्ने पर अब किस्मत की स्याही चलना शुरू हो गई। उन्हें चर्च गेट पर पोस्टल डिपार्टमेंट ऑफ आम्र्ड फोर्सेस में उन्हें 65 रुपए महीने की सैलरी पर पहली नौकरी मिली। उन्हें काम मिला सैनिकों की चिठ्ठियां पढ़ने का। इसके बाद उन्होंने अकाउंटिंग फर्म में 85 रुपए महीने पर काम किया।
वे वहां पर क्लर्क बन गए। मगर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। तब किसी ने देव साहब को ऑफर किया कि प्रभात स्टूडियो के मालिक बाबू राव पाई एक फिल्म बना रहे हैं। अगले ही दिन जब देव आनंद प्रभात स्टूडियो पहुंचे तो गार्ड ने उन्हें वहीं से बाहर निकाल दिया। थोड़ी ही देर में जब बाबू राव वहां पर आए तो देव आनंद को देखते ही रह गए।
उन्होंने फाइनल कर लिया कि उनकी फिल्म में अगर कोई हीरो बन सकता है तो वो देव आनंद ही हैं। उन्होंने देव को कहा कि मैं केवल फिल्म का निर्माता हूं। पी एल संतोषी इसके निर्देषक होंगे। वही तुम्हें काम देंगे। क्या तुम उनसे मिल सकते हो? अगले दिन पी एल संतोषी से मिलने देव साहब चले गए।
उन्होंने देव आनंद का उना में ऑडिशन हुआ। इसके बाद उन्हें पहली फिल्म मिली जिसका नाम था 1946 में बनी ‘हम एक हैं’। इस फिल्म में उनकी हीरोइन थी तेलगू और हिन्दी फिल्म एक्ट्रेस अमाला कोटनिस। आपको बता दें कि इस फिल्म के लिए उन्हें 400 रुपए महीना मिलता था।
उन पैसों से देव आनंद ने बाॅम्बे में ही एक घर बना लिया। इसके बाद तो जैसे देव आनंद की झोली में एक के बाद एक फिल्में अपने आप ही गिरती चली गईं। इनकी सुपर हिट फिल्मों में शामिल हैं जीत, शायर, विद्या, गाईड, अफसर, नीली, दो सितारे, सनम आदि। इसी लिए कहते हैं दोस्तों हमें जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए। मेहनत करते रहना चाहिए। क्या पता किस्मत कब कैसा मोड़ ले ले और आपको शोहरत की बुलंदियों तक ले जाए।
अक्षय कुमार
दोस्तों चलिए अब बात करते हैं उस हैंडसम और डैशिंग एक्टर की जिसका फिल्मी दुनिया से दूर दूर तक कोई नाता नहीं था। मगर उसने अपने एक्टिंग के बल पर न केवल फिल्मी दुनिया पर बल्कि करोड़ों दिलों पर राज किया और आज भी कर रहे हैं।
जी हां हम बात कर रहे हैं द वन एंड ओन्ली अक्षय कुमार की। दोस्तों, अक्षय कुमार के पिता हरिओम भाटिया बतौर प्रोफेशन अमृतसर के इंडियन आर्मी में एक अधिकारी के पद पर थे। हालांकि बाद में वो यूनिसेफ में काम करने लगे। काम के सिलसिले में उन्हें कभी दिल्ली तो कभी मुम्बई रहना पड़ता था। अक्षय कुमार का असली नाम था राजीव हरिओम भाटिया।
इनकी एक बहन भी थी जिनका नाम था अल्का भाटिया। इनका जन्म 9 सितम्बर 1967 को हुआ। हालांकि इनका जन्म अमृतसर में हुआ था। मगर इनका दाना-पानी पुरानी दिल्ली में लिखा था। अक्षय का पालन-पोषण यहीं पर हुआ। अक्षय जब 3 वर्ष के थे तो इनके पिता दिल्ली में ही सियोन कोली वाड़ाा में एक छोटे से घर में रहने लगे। आपको बता दें कि पढ़ाई करने में अक्षय की दिल्चस्पी बहुत ही कम थी। ये तो सारा दिन खेल कूद और मार्शल आर्ट में ही बिजी रहते थे।
इन्होंने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। वे बचपन से ही मार्शल आर्ट सीखने लगे थे। मार्शल आर्ट में अपनी कला को और निखारने के लिए उन्होंने थाइलैंड जाने का फैसला किया। खर्च उठाने के लिए इन्होंने बैंकाॅक के होटल में पहले तो वेटर का काम किया और फिर रसोइया बन गए।
यहीं से उनके संघर्ष भरे दिनों की शुरूआत हुई। अक्षय काम भी किया करते थे और साथ ही साथ मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग भी लेते रहे। यहां पर उन्होंने थाई बाॅक्सिंग और टाइची की ट्रेनिंग भी ली। वो वहां से डिग्री लेकर और ब्लैक बेल्ट होल्डर बन कर अपने देश भारत लौटे। यहां पर भी संघर्षों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।
मार्शल आर्ट का उन्हें ऐसा जुनून था कि उन्होंने अलग अलग जगह पर कई छोटे मोटे काम भी किए। साथ ही यूनिसेफ के ग्रीटिंग कार्ड भी बेचना शुरू कर दिया। इससे उन्हें एक कार्ड बेचने पर बमुश्किल 5 पैसे मिलते थे। इसके बाद उन्होंने कोलकाता और ढाका में बहुत ही कम सैलरी पर काम किया। एक ट्रेवल एजंसी में इन्होंने डेढ़ साल तक चपरासी का काम किया जो कि कोलकाता में थी।
कहते हैं कि उन्होंने अपनी मार्शल आर्ट की अकादमी भी चलाई। यहां पर उनके एक स्टूडेंट ने उन्हें माॅडलिंग का सुझाव दिया। फिर अक्षय माॅडलिंग में अपना करियर बनाने लगे। अक्षय ने कई फिल्मों में बतौर बैकडांसर भी काम किया है। किस्मत ने उन्हें बाॅलीवुड की दुनिया से मिलवा दिया।
हालांकि अक्षय ने कभी एक्टिंग करने की नहीं सोची थी। इसके बाद अक्षय ने फिल्म ‘आज’ में सात सेकंड के एक छोटे से रोल से अपने फिल्मी करियर की शुरूआत की। इस फिल्म का निर्देशन किया था महेश भट्ट ने। इस फिल्म में एक्टर कुमार गौरव के किरदार का नाम अक्षय था।
यह नाम राजीव भाटिया को भा गया और उन्होंने अपना नाम बदल कर अक्षय कुमार रख लिया। एक बार अक्षय कुमार को एड शूट के लिए माॅडलिंग के काम से बैंकाॅक जाना था। फ्लाइट सुबह की थी। किसी कारण वश उनकी वो फ्लाइट छूट गई। फिर उनका माॅडलिंग का काम भी छूट गया।
अक्षय बहुत निराश होकर शाम के समय नटराज स्टूडियो के सामने से गुजर रहे थे। तभी डायरेक्टर प्रमोद चक्रवर्ती के स्टाफ मेंबर की उनपर नजर पड़ी। बस फिर क्या था। प्रमोद चक्रवर्ती ने पहली ही मुलाकात में अक्षय को बतौर हीरो अपनी पहली फिल्म के लिए साइन कर लिया। वो फिल्म थी ‘दीदार’। इसके बाद उन्हें एक के बाद एक फिल्में मिलती चली गईं जो कि सुपर हिट रहीं। उनकी टाॅप फिल्मों के नाम हैं खिलाड़ी, सौगंध, मिस्टर बाॅंड, सैनिक, वक्त हमारा है, मोहरा, अमानत, सुहाग आदि।
बोमन ईरानी
दोस्तों बोमन ईरानी आज किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। हे बेबी, 3 ईडियट्स जैसी सुपर हिट फिल्मों में काम करने वाले एक्टर बोमन ईरानी का जीवन भी बहुत संघर्ष पूर्ण रहा। चलिए इसके बारे में आपको बताते हैं। इनका जन्म 2 दिसम्बर 1959 को मुम्बई में हुआ था।
बोमन ईरानी जब पेट में थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। पिता की मौत के कारण इनका जीवन संघर्षों की सेज बन गया था। बचपन से ही इन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा था। इसी तंगी को दूर करने के लिए उन्होंने बहुत छोटी उम्र से ही अपने घर की जिम्मेदारी संभाल ली।
उन्होंने कई स्थानों पर छोटे मोटे काम किए ताकि उन्हें कुछ पैसे मिल सकें और जीवन यापन कर सकें। एक दौर वो भी था जब बोमन ईरानी ने अपने घर की माली हालत को दूर करने के लिए होटल में वेटर के तौर पर भी काम किया। साथ ही इन्होंने फोटोग्राफी और रूम सर्विसिंग का काम भी किया।
आपमें से शायद कम ही लोग इस बात को जानते होंगे कि बचपन में बोमन ईरानी को बोलने में तकलीफ होती थी। वो स्पष्ट रूप से नहीं बोल पाते थे। इस बीमारी का नाम था डिस्लैक्सिक। अगर वो किसी काम को सीखना भी चाहते थे तो जल्दी सीख नहीं पाते थे।
मगर अपनी इस प्राॅब्लम को भी इन्होंने धत्ता बताते हुए मेहनत की और कामयाब हुए। उन्हें एक्टिंग का शुरू से ही कीड़ा था। इसके लिए उन्होंने 1981 से 1983 में एक्टिंग कोच हंसराज सिद्दीकी से ट्रेनिंग ली। उनके थिएटर शो आई एम बाजीराव में उनकी एक्टिंग ने दर्शकों का दिल जीत लिया था। अपने एक्टिंग के शौक को पूरा करने के लिए उन्होंने छोट-छोटे विज्ञापनों से अपनी शुरूआत की।
उन्होंने क्रैक-जैक, फैंटा और सीएट टायर के विज्ञापनों में काम करना शुरू किया। कहते हैं कि हीरे की परख जोहरी ही करता है। विनोद चोपड़ा ने उनके टैलेंट को पहचानते हुए उन्हें अपनी अगली फिल्म के लिए कास्ट कर लिया और साथ ही उन्हें 2 लाख रुपए का चेक भी दिया।
बोमन ईरानी को फिल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस में एक्टर के तौर पर पहचान मिली। जिसमें उनकी एक्टिंग को लोगों ने खूब सराहा। मुन्ना भाई के लिए उन्हें डायरेक्टर राजकुमार हिरानी ने कास्ट किया था। ये बतौर डायरेक्टर राजकुमार की डेब्यू फिल्म थी। लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार उन्हें सफलता की सीढ़ी नजर आई जिसे वो चढ़ते चले गए।
इसके बाद बोमन ने फिल्म मैं हूं न, लगे रहो मुन्ना भाई, नो एंट्री, खोसला का घोंसला, पी के और डाॅन जैसी कई बेहतरीन फिल्मों में काम किया। दोस्तों हमें यकीन है आपको भी इनके जीवन से बहुत सीख मिली होगी। इसलिए कभी अपने जीवन में आई मुसीबतों से हार मत मानना।
मिथुन चक्रवर्ती
फ्रेंड्स आप में से बहुत से लोग ऐसे होंगे जिन्होंने बड़े-बड़े फिल्म स्टार्स को देख कर उनके पीछे दौड़ पाई होगी। उनकी एक झलक पाने को तरसे होंगे। तब आपको भी यही लग रहा होगा कि काश आपकी किस्मत भी उनके जैसी होती। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि आपको केवल उनकी ग्लैमरेस दुनिया दिखती है। मगर शायद ही आप में से किसी ने ये सोचा होगा कि ये सब किस्मत का खेल नहीं है, बल्कि उनकी कड़ी मेहनत और संघर्ष की बदौलत स्टार्स यहां तक पहुंचे हैं।
इन्हीं में से एक हैं मिथुन चक्रवर्ती। ‘आई एम ए डिस्को डांसर’ ये गीत आपने जरूर सुना होगा। मगर इस गाने की तरह मिथुन चक्रवर्ती की जीवन की गाड़ी डिस्को डांस नहीं कर रही थी। बल्कि उनके जीवन में कई सारी मुसीबतों के गड्ढे थे जिनपर मिथुन चक्रवर्ती की गाड़ी हिचकोले खाती हुई हौले हौले आगे बढ रही थी।
पूरी दुनिया में मिथुन चक्रवर्ती को मिथुन दा के नाम से जाना जाता है। आज हम इनके संघर्ष की कहानी आपको बताने जा रहे हैं जिससे आपको अपनी जि़्ांदगी में प्रेरणा मिलेगी। सन् 1952 का साल। जून का महीना और 16 तारीख। ये वो दौर था जब बांगलादेश के बारीसाल में जन्म हुआ एक ऐसे शख्स का जिसने अपने एक्टिंग के दम पर पूरी दुनिया में और करोड़ों फैन्स के दिलों पर राज किया।
आपको बता दें कि मिथुन दा को अपने जीवन के शुरूआती दौर में काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ा। मिथुन चक्रवर्ती ने अपने जीवन में वो दौर भी देखा था जब उन्हें हमेशा एक वक्त की रोटी मिल पाएगी या नहीं इसकी चिंता लगी रहती थी। फिल्मों में एंट्री से पहले मिथुन दा छोटे मोटे स्टेज शो में डांस किया करते थे।
इससे जो पैसे मिलते थे उससे उनकी रोजी रोटी चलती थी। ऐसा भी कहा जाता है कि कभी मिथुन चक्रवर्ती नक्सली थे। लेकिन एक हादसे में उन्होंने जब अपने भाई को खो दिया तो वो अपने परिवार के बीच लौट आए। फिर मिथुन पर परिवार का भरण पोषण करने का भार आ गया।
जब उनके संघर्ष की गाड़ी मुंबई पहुंची तब वे माटुंगा के सनी साहिब बिल्डिंग में रहते थे। अब जो बात हम आपको बताने जा रहे हैं उसे सुन कर आप चैंक जाएंगे। मिथुन ने वो समय भी देखा था जब इनके पास मुंबई में रहने को घर नहीं था और ये सनी साहिब बिल्डिंग की सीढ़ियों पर रहते थे। वहां की सीढ़ियों पर सोने के लिए भी उन्होंने बिल्डिंग के चेयरमैन को महीने के 75 रुपए चुकाए।
इसके बाद जैसे तैसे पैसा जोड़कर उन्होंने एक एक्टिंग स्कूल में एडमीशन लिया। वहां से निकले तो उन्हें अपने करियर की पहली फिल्म मिली जिसका नाम था मृग्या। मिथुन की ये पहली फिल्म सुपरहिट साबित हुई। इसी फिल्म के लिए उन्हें पहला नेश्नल अवाॅर्ड भी मिला।
पहली हिट फिल्म के बाद जैसे किस्मत ही रूठ गई। इनके पास फिल्मों का अकाल सा पड़ गया। संघर्ष फिर भी जारी रहा। जो फिल्में उनको मिली वो भी फ्लाॅप हो गईं। अपनी जीवन यापन की चिंता में उनका डांस का जुनून किसी मजबूरी के पिंजरे में कैद हो गया था।
उन दिनों हेलेन की शेहरत बुलंदियों पर थी। कोई फिल्म ऐसी नहीं होती थी जिसमें हेलेन का डांस न रखा जाता हो। बस फिर क्या था। अपने डांस के शौक को पूरा करने के लिए मिथुन हेलेन के असिस्टेंट बन गए। कोई उन्हें पहचान न पाए इसलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राना रेज रख लिया।
मिथुन ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कभी उन्हें ऐसा दिन भी देखना पड़ेगा जब अपनी भूख मिटाने के लिए उन्हें अपना अवाॅर्ड बेचना पड़े। एक बार मिथुन को किसी पत्रकार ने पहचान लिया और उनका इंटरव्यू लेने को कहा। मिथुन ने इंटरव्यू देने की एक शर्त रखी कि वो पत्रकार उन्हें भरपेट खाना खिलाएं।
पत्रकार ने मिथुन को खाना खिलाया और फिर इनका इंटरव्यू किया। एक बार मिथुन फिल्म निर्माता मनमोहन देसाई के पास पहुंचे। उन्होंने अपना परिचय दिया और कहा कि ‘सर क्या मुझे आपकी फिल्मों में काम मिल सकता है? दो वक्त की रोटी के बदले मैं कोई भी छोटा मोटा रोल कर सकता हूं।’
मनमोहन देसाई ने मिथुन को पूछा क्या तुमने आज खाना खाया? मिथुन बोले नहीं। तब देसाई ने उन्हें 10 का नोट दिया और कहा जाओ पहले खाना खा लो। समय भला एक सा कहां रहता है। जिस मनमोहन देसाई ने उन्हें 10 का नोट देकर वापस भेज दिया था समय बदला तो उन्हीं ने मिथुन को ‘गंगा जमुना सरस्वती’ फिल्म में अमिताभ बच्चन के साथ काम दिया।
एक बार साल 1982 में मिथुन नटराज स्टूडियो पहुंचे। स्टूडियो के प्रोड्यूसर टी एल बी प्रसाद ने उन्हें जीतेंद्र यानी जीतू से मिलवाया। मिथुन का मजाक उड़ाते हुए जीतेंद्र ने कहा कि अगर ये हीरो बन गया तो मैं फिल्मों में काम करना छोड़ दूंगा। उस दौर में अपने डांस के लिए जीतेंद्र मशहूर थे। मगर ये समय का फेर ही था कि डिस्को डांसर फिल्म ने मिथुन को जीतेंद्र का विकल्प बना दिया।
वर्ष 1986 में मिथुन ने जीतेंद्र के साथ जाल, ऐसा प्यार कहां तथा स्वर्ग से सुंदर फिल्मों में एक साथ काम किया। मिथुन को फिल्म फेयर अवाॅर्ड और नेशनल अवाॅर्ड भी मिल चुका है। तेलगू, उड़िया, बंगाली और अन्य भाषाओं समेत उन्होंने 350 से ज्यादा फिल्मों में काम किया है। इन्होंने डांस रिएलिटी शो में जज के रूप में कई बार काम किया। आशा है आपको मिथुन दा के जीवन के संघर्ष से प्रेरणा मिली होगी।
धर्मेंद्र
दोस्तों चलिए अब आपको बताते हैं बेहतरीन एक्टर धर्मंद्र के बारे में। इनका जीवन और संघर्ष का तो जैसे चोली दामन का साथ रहा। धर्मेंद्र का जन्म 8 दिसम्बर 1935 को पंजाब के नरसाली में हुआ। इनक पूरा नाम था धर्मेंद्र सिंह देओल। इनके पिता का नाम केवल किशन देओल था और माता का नाम था सतवंत कौर। धर्मेंद अकसर अपनी मां से कहा करते थे कि वो हीरो बनना चाहते हैं।
उनकी पढ़ाई लिखाई में जरा भी रूची नहीं थी। उन्हें फिल्में देखने का इतना शौक था कि 1949 में आई फिल्म दिल्लगी को धर्मेंद्र ने करीब 40 से भी अधिक बार देख है। फिल्मों से उन्हें इतना लगाव था कि अकसर वो क्लास की बजाए सिनेमा हाॅल में पाए जाते थे। अब ज़ाहिर सी बात है इसके लिए उन्हें शाबाशी नहीं डांट ही मिलती थी। पिता जी की डांट खाने के बाद वो मां से कहते थे कि वो उन्हें स्कूुल से निकालवा दें।
पढ़ाई में उनका मन नहीं लगता है। उनके पिता उन्हें दूसरे बच्चों के मुकाबले बहुत ज़्यादा डांटते थे। वो अपनी मां के लाडले थे। दोनों में अच्छी दोस्ती होने के कारण धर्मेंद्र अपने दिल की हर बात मां को बताते थे। क्या आपको मालूम है, धर्मेंद्र ने फिल्मों में आने से पहले रेलवे में क्लर्क के तौर पर काम किया। इनती सैलरी लगभग सवा सौ रुपए थी। जब वे 19 वर्ष के हुए तो इनकी शादी प्रकाश कौर से हो गई।
एक बार इनकी मां ने कहा कि अगर तुम्हें फिल्मों में जाने का इतना ही शौक है तो तुम वहां एक एप्लीकेशन लिख दो। बस फिर क्या था। उनकी मां के ये शब्द धर्मेंद्र के लिए टर्निंग प्वाइंट बन गए। तभी एक अखबार में विज्ञापन निकला। इसमें लिखा था कि फिल्म फेयर टैलेंट हंट के लिए गुरुदत्त और विमल राॅय एक नया चेहरा तलाश रहे हैं। धर्मेंद्र इसे पढ़कर बहुत खुश हुए और मलेरकोटला रवाना हुए अपनी फोटो खिंचवाने के लिए।
इसके बाद फिल्म फेयर टैलेंट हंट के लिए एप्लीकेशन फोटो के साथ भेज दी। वो कहावत तो आपने सुनी ही होगी। ‘होई है वही जो राम रचि राखा।’ किस्मत ने धर्मेंद्र के लिए एक अलग ही मंजि़्ाल ढूंढ रखी थी। वो न्ये टेलेंट हंट में सेलेक्ट हो गए और फिर पंजाब से मुंबई में शिफ्ट हो गए। 1960 में बनी फिल्म ‘दिल भी तेरा, हम भी तेरे’ फिल्म के लिए निदेर्शक अर्जुन हिंगोरानी ने उन्हें 51 रुपए देकर हीरो की भूमिका के लिए एग्रिमेंट किया।
इसी के साथ धर्मेंद्र का फिल्मी करियर शुरू हो गया। इस फिल्म में इनकी को एक्ट्रेस थी कुमकुम। वो फिल्म कुछ खास नहीं चली। लेकिन कई वर्षों तक इनका संघर्ष जारी रहा। उनके संघर्ष के दिनों के साथी थे मनोज कुमार। संघर्ष के दिनों में धर्मेंद्र जुहू में एक छोटे से कमरे में रहते थे। इसके बाद 1962 में फिल्म आई ‘अनपढ़’। 1963 में बंदिनी और सूरत और सीरत। ये वो फिल्में थी जिनसे धर्मेंद्र को लोगों के बीच पहचान मिली।
फिर वो समय आया जब सिल्वर स्क्रीन पर धर्मेद्र का नाम एक्शन हीरो के रूप में छा गया। वो फिल्म थी 1966 में बनी फूल और पत्थर। धर्मेंद्र ने एक बार फिल्म ‘मां’ में असली चीते से मुकाबला किया था। उनकी एक खासियत थी कि उन्होंने कभी भी डुप्लिकेट का सहारा नहीं लिया।
‘सत्यकाम’ फिल्म ने लोगों की नजर में इनके किरदारों की बंदिश को झूठा साबित कर दिया। अब लोगों को लगने लगा कि ये कोई भी रोल कर सकते हैं। उनकी बेहतरीन फिल्मों में शामिल फिल्म है ‘मेरा नाम जोकर’। इसमें उन्होंने राज कपूर के साथ काम किया था।
धर्मेंद्र ने फिल्म ड्रीम गर्ल में हेमा मालिनी के साथ काम किया। यही आगे चलकर उनकी रियल लाइफ गर्ल भी बनीं। शोले, सीता और गीता, जुगनू जैसी फिल्मों में धर्मेदं हेमा मालिनी के साथ नजर आए। दर्शकों ने इनकी जोड़ी को खूब पसंद किया। धर्मेंद्र ने ठान लिया था कि वो इनसे शादी करेंगे। उन्होंने हेमा से शादी की तो काॅन्ट्रोवर्सी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। आखिरकार दोनों के प्यार के आगे दुनिया को झुकना ही पड़ा।
इनकी पहली पत्नी प्रकाश कौर से इन्हें एक बेटा हुआ जिनका असली नाम अजय सिंह देओल और फिल्मी नाम सनी देओल था। इन्होंने विजेता फिल्म्स के नाम से अपनी प्रोडक्शन कम्पनी शुरू की। फिल्म बेताब से सनी देओल को लाॅंच किया। 10 वर्ष बाद छोटे बेटे बाॅबी देओल को भी फिल्म ‘बरसात’ में लाॅंच किया। वर्ष 2004 में फिल्म ‘लाइफ इन मेट्रो’ में इनकी एक्टिंग को खूब पसंद किया गया।
धर्मेंद्र ने फिल्म ‘टेल मी ओ खुदा’ में अपनी बेटी ईशा के साथ भी काम किया। सन् 2000 में धर्मेंद्र अभिनेता से नेता की ओर बढ़ चले और बीकानेर सीट जीती। वर्ष 2012 में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।
दोस्तों, हमने अपको आज इन एक्टर्स के जीवन की वो सच्चाई बताई है जिसे कभी भी रुपहले पर्दे पर दर्शाया नहीं गया। इनका ये संघर्ष जीवन की कड़वी सच्चाई के रूप में कहीं न कहीं बाॅलीबुड की चकाचैंध में छुप जाता है। इस आर्टिकल के जरिए हम आपको ये बताना चाहते हैं कि आपकी लाइफ में चाहे कितने भी मुसीबतों का पहाड़ क्यों न टूट पड़े लेकिन आपको हिम्मत नहीं हारनी है।
आपको इनसे प्रेरणा लेनी है। जरा सोचिए अगर ये सभी एक्टर्स अपने संघर्ष से हार जाते तो क्या ये कभी इस मुकाम तक पहुंच पाते जिस मुकाम पर ये आज हैं। हमें उम्मीद है दोस्तों आप भी अबसे अपनी प्राॅब्लम्स को हस कर फेस करेंगे और जीतेंगे भी।